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हिंसा नृतीयभ्यो मैथनसंवा परिग्रहाभ्यांत्र । पापप्रपालिकाभ्यो विगतिः संजस्य चारित्रम् ॥ ४६॥
-रत्नकरण्डश्रावकाचार । यादा प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं । प्रायः सर्वत्र चारित्र का लक्षण निवृत्यान्मक ही किया है । हाँ!व्यवहानिय से प्रवृत्यात्मक लनण का भी उल्लेख मिलता है। जैसे
असुहाटो विगिवित्ती मुह पबित्तीय जाण चारि । वदसमिटि गुत्तिनय ववहारगयाटुजिए मणिय ॥
-द्रव्यसंग्रह । यहाँ पर अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को व्य. वहारनय से चारित्र कहा गया है। परन्तु व्यवहारनय से कहा गया चारित्र, वास्तविक चारित्र नहीं है । क्योंकि व्यवहानिय का विषय अभूतार्थ (अवास्तविक) है । अमृतचन्द्राचार्य ने इस का बहुत ही अच्छा खुलासा किया है
निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्य भूतार्थम् । भूतार्थ बोधविमुखः प्रायः मत्रोंऽपि संसारः॥ अबुधम्य बोधनार्थ मुनीश्वग वर्णयन्त्य भृनार्थम् । व्यवहारमेव चलमवैति यस्तम्य देशना नास्ति ॥ माणवक एव सिंहों यथा भयत्यनवगीत मिहम्य । व्यवहार एवाहि तथा निश्चयनां पात्यानश्चयक्षम्य ॥ व्यवहार निश्चयो यः प्रबुध्यतत्वेन मवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायाः सएपफलमविकलशिष्यः ॥
अर्थान-वास्तविक्ता का विषय करने वाला निश्चयनय है और वास्तविकताको विषय करने वाला व्यवहारनय है । प्रायः समस्त संमार चाम्तविकता के मान से रहित है। अल्पबुद्धि वाले जीवों को समझाने के लिये व्यवहारनय का कथन किया जाता है । जो व्यवहारनय को ही पक्के रह जाता है