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पत्थरों के ढेर में से या पहाड में से किसी पत्थर की जिनेन्द्रमूर्ति बना लेना अनुचित हो जायगा ? स्थापना में सिर्फ इतना ही देखना चाहिये कि वर्तमान में यह पत्थर श्राकारान्तरसंक्रान्न तो नहीं है । पहिले सि श्राकारमें था, इसके विचार की कोई जरूरत नहीं है । इसी प्रकार वर्तमान में जो किसी दूसरे पुरुष की स्त्री है उसे स्वस्त्री नहीं बनाना चाहिये, जैसे कि निघ्यन में अनेक पुरुष एक ही स्त्री को अपनी अपनी पत्नी बनाते हैं या जैसे कि हिंदू शास्त्रों में द्रोपदी के विषय में प्रसिद्ध है । परन्तु जो श्री विधवा हो गई है वह तो कुमारी के समान किसी की पत्नी नहीं हे । वह आकारन्तिरसक्रान्त अर्थात् किसी की पत्नी भी ज़रूर, परन्तु अब नहीं है । इसलिये उसमें स्वपत्नीत्वका सङ्कल्प अनु. चित नहीं है । श्रक्षेपक ने प्रकरण को छिपाकर, कन्या शब्दका अर्थ भुलाकर, ज़बरदस्ती भूतकाल के रूपको वर्तमान का रूप देकर या तो खुद धोखा खाया है या दूसरों को धोखा दिया है । श्राचार्य सोमदेव के वाक्यों से विधवाविवाह का विरोध करना दुःसाहस है । जो श्राचार्य श्रणुवती को वेश्यासेवन तक की खुलासी देते है वे विधवाविवाह का नया विरोध करेंगे ? बल्कि दूसरी जगह खुद उन्होंने स्त्री के पुनर्विवाह का समर्थन किया है। नीतिवाक्यामृत में वे लिखते है कि- 'विकृत पत्यू द्वापि पुनर्विवाहमर्हतीति स्मृतिकाराः' अर्थात् शास्त्रकार कहते हैं कि जिस स्त्री का पति विकारी अर्थात् सदोष हो, वह स्त्री भी पुनर्विवाह की अधिकारिणी है। इस वाक्य के उत्तर में कुछ लोग कहा करते हैं कि यह तो दूसरों की स्मृतियों का हवाला हैसोमदेव जी इससे सहमत नहीं है । परन्तु सोमदेव जी अगर सहमत न होते तो उन्हें इस हवाले की जरूरत क्या थी ? यदि सोमदेवजी ने विधवाविवाह का खंडन किया होता और खंडन के लिये यह वाक्य लिखा होता तब तो कह सकते थे कि वे