SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १६६ ) ध्वा सहैव कुर्वीत निवास श्वशुरालये । चतुर्थदिन केचिदेवं वदन्ति हि ॥ 9 वर वधू के साथ ससुराल में हो निवास करे परन्तु कोई कोई कहते है कि चौथे दिन तक ही निवास करे । चतुर्थीमध्ये ज्ञायन्ते दावा यदि वरस्य चेत् । दत्तामपि पुनर्दद्यात् पिनान्यमै विदुर्बुधाः ॥ ११-१७२ चौधी रात्रि को यदि वरके दीप (नपुंसकत्वादि) मालूम हो जायें तो पिता को चाहिये कि ही हुई- विवाही हुई-कन्या फिर से किसी दूसरे घर को दे दे अर्थात् उस का पुनर्विवाह ऐसा बुद्धिमानों ने कहा है । प्रवरैक्यादिदोषाः स्युः पतिमहादधी यदि । saraf हरेद्यादन्यस्मा इति केचन ॥ ११-१७५ अगर पतिसगम के बाद मालूम पढ़े कि पति पत्नि के प्रवर गात्रादि की एकता है तो पिता अपनी दी हुई कन्या किसी दूसरे को देदे | कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेदिति गान्तवः । कम्मिंश्चिदेश इच्छन्ति न तु सर्वत्र कंचन ॥११- १७६ परन्तु गान्तव ऋषि कहते है कि कलिकाल में पुनर्विवाह न करे और कोई कोई यह चाहते है कि कहीं कहीं पुनर्विवाह किया जाय सब जगह न किया जाय | दक्षिण प्रांनमें पुनर्विवाहका रिवाज होने से भट्टारक जी ने उस प्रान्त के लिये यह छूट चाही है । यो तो उनने पुनर्वि वाह को श्रावश्यक माना है परन्तु यदि दूसरे प्रांत के लोग पुनर्विवाहन चलाना चाहें तो मट्टारक जी किसी किसी प्रान्त के लिये खासकर दक्षिण प्रान्तकं लिये श्रावश्यक समझते है । पाटक देखे इन श्लोकों में स्त्रीपुनर्विवाह का कैसा ज़बर्दस्न समर्थन हैं । यहाँ पर यह कहना कि वह पुरुषों के पुनर्विवाह
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy