________________
( १० )
सो संकल्पी हिंसा करने वाला श्रासेट वालों की तरह सप्त व्यसनी है। उसके कभी सम्यक्त्व नहीं होसकता । भला जहाँ प्रशम- सवेग हो गये हाँ वहाँ संकल्पी हिंसा होना त्रिकाल में मी सम्भव नहीं है ।
-
समाधान — यहाँ पर प्रक्षेपक व्यसन और पापके भेद को भूल गया है । प्रत्येक व्यसन पाप है, परन्तु प्रत्येक पाप व्यलन नहीं है । इसलिये पाप के सद्भाव से व्यसन के सद्भाव की कल्पना करना श्राचार शास्त्र से अनभिज्ञता प्रगट करना है | श्रक्षेपक अगर अपनी पार्टी के विद्वानों से भी इस व्याप्य व्यापक सम्बन्धको समझने की वेश करेगा तो समझ सकेगा । प्रक्षेपक के मतानुसार सप्तव्यसन का त्याग दर्शन प्रतिमा के पहिले है, जब कि संकल्पी हिंसा का त्याग दूसरी प्रतिमा में हैं । इससे सिद्ध हुआ कि दर्शन प्रतिमा के पहले और सातिचार होने से दर्शन प्रतिमा में भी सप्तभ्यसन के न होने पर भी संकल्पी हिंसा है। क्या आक्षेपक इतनी मोटी बात भी नहीं समझता ? 'प्रशम सवेग होजाने से संकल्पी हिंसा नहीं होती' यह भी श्रातपक की समझ की भूल है । प्रशम संवेगादि तो चतुर्थ गुणस्थान में हो जाते हैं, जबकि मंकल्पी त्रस हिंसा का त्याग पाँचवें गुणस्थानमें होता है। इससे सिद्ध हुआ कि चतुर्थ गुणस्थान में - जहाँ कि जीव सम्यक्त्वी होता है- प्रशम सवेगादि होने पर भी सङ्कल्पी त्रस हिंसा होती है । ख़ैर, प्रक्षेपक यहॉ पर बहुत भूला है । उसे गोम्मटसार आदि ग्रन्थों से श्रविरतसम्यग्दष्टि और देशविरत के अन्तर को समझ लेना चाहिये ।
आक्षेप (ऊ) - जब पुरुष के स्त्री वेद का उदय होता है, तब विवाहादि की सूझती है । मला अप्रत्यास्थानावरण कषाय वेदनीय से क्या सम्बन्ध है ?