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________________ ( १७६ ) खडा होता है कि जब आप रक्त मांस में शुद्धि समझते हैं तो उसके भक्षण करने में क्या दोष ? आक्षेप (ज) - द्रव्यवेद (स्त्री) पाँचवें तक क्यों ? भाववेद नवमे तक क्यों ? क्या यह सब विचार रक्त माँस का नहीं है | ( विद्यानन्द ) समाधान —- वेद को रक्तमांस समझना भी अद्भुत पाण्डित्य है । खैर, वह प्रश्न भी प्रक्षेपक के ऊपर पडता है कि एक ही माता पिता से पैदा होने वाले भाई बहिन की रक्तशुद्धि तो समान है फिर स्त्री पाँचवें गुणस्थान तक ही क्यों ? यदि स्त्रियों में रक्त माँस की शुद्धि का श्रभाव माना जाय तो क्या उनके सहोदर भाइयों से उनकी कुल जाति जुदी मानी जायगी ? और क्या सभी स्त्रियाँ जारज मानी जायँगी ? १ आक्षेप ( झ ) - बिना वज्र वृपभनाराच संहनन के मुक्ति प्राप्त नहीं होती । कहिये शरीर शुद्धि में धर्म है या नहीं ? समाधान - सहनन को भी रक्त मांस शुद्धि समझना विचित्र पाण्डित्य है | क्या व्यभिचारजातों के वज्र वृषभना राच संहनन नहीं होता ? क्या मच्छों के वज्र वृषभनाराच सहनन नहीं होता ? यदि होता है तो इन जीवों का शरीर ब्राह्मी सुन्दरी सीता श्रादि देवियों और पञ्चमकाल के श्रतवली तथा अनेक श्राचार्यों के शरीर से भी शुद्ध कहलाया क्योंकि इनके वज्रवृषमनाराच संहनन नहीं था । कहीं रक्त शुद्धि का अर्थ कुलशुद्धि जातिशुद्धि करना, कहीं सहनन करना विक्षिप्तता नहीं तो क्या ? आक्षेप (ञ) - सुभग आदि प्रकृतियों के उदय से पुण्यात्मा जीवों के सहनन सस्थान आदि इतने प्रिय होते हैं कि उन्हें छाती से चिपटाने की लालसा होती है। ( विद्यानन्द )
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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