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आक्षेप (ग)-विधुर और विधवानों का अगर एकसा इलाज हो तो दोनों को शास्त्रकारों ने ममान प्राशा क्यों नहीं दी ? (विद्यानन्द)
समाधान-जैनधर्म ने दोनों को समान प्रामा दी है। इस विषय पहिले चिन्ताग्मे लिखा जा चुका है। देखो''।
आलेप (घ)-त्रीपर्याय पुरुषपर्याय से निध है। इस लिये जो विधवाएं पुरुषों के नमान पुनर्विवाह का अधिकार चाहती हैं, वे पहिले पुरुष यनने के कार्य मंयमादिक पालन पुरुष बनलें। बाद में पुरुषों के ममान पुनर्विवाह की अधिकारी बने । (विद्यानन्द)
ममाधान-अगर यह कहा जाय कि "भाग्नवामी निंद्य हैं इसलिये अगर ये बगस्य चाहते हैं नो अग्रेजों की निम्बार्थ सेवा करके पुगय कमायें और मरकर अग्रेजों के घर जन्म न" तो यह जैसी मूर्खना कहलायगी इसी तरह की मीना पानेरक बनाव्य में है । वनमान विधवा अगर मर के पुरुष न जायेंगी तो क्या परलोक में विधवा बनने के लिये पण्डित लोग अवतार लेंगे? क्या फिर विधवा न रहेंगी ? क्या इममे विधवानों की ममम्या हान हो जायेगी ? क्या भ्रूणहन्याएँ न होगी ? क्या विपत्तिग्रस्त लोगों की चिपत्ति दूर करने का यही उपाय है कि पारलौकिक सम्पत्ति की झूठी श्राशा से उन्हें मग्नं दिया जाय?वर, जिन विधवाओं में ब्रह्म चर्य परिणाम है वे तो पुगयोपार्जन करेंगी परन्तु जो विधचा मटा मानमिक मोर शारीरिक व्यभिचार करती रहती है, भागों के अभाव में दिनगन गनी है और हाय हाय करती है, वे क्या पुगयांपार्जन करेंगी? दुःत्री जीवन व्यतीत करने से ही क्या पुगयबन्ध हो जाता है ? यदि हाँ, नव मानवे नरक के नारकी को सय से बडा नएम्बी कहना चाहिये । यदि