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________________ ( १३६ ) कर्तव्य हो जाती है और कहीं अहिंसा भी अनन्य हो जाती है ? अगछेदन पाप है परन्तु पालकों के कर्णलेट आदि में पाप नहीं माना जाता । किसी मती के पीछे कुछ मदमाश पड़े हों तो उसके सतीत्व की रक्षा के लिये झूठ बोलना या उसं छिपा लेना (चारी) भी अनुचित नहीं है । परविवाहकरण अणुव्रत का दूपण है परन्तु अपनी सन्तान का विवाह करना या व्यभिचार की तरफ झुक्ने वालों को विवाह का उपदेश देना पण नहीं है। परिग्रह पाप है परन्तु धोपकरणों का रखना पाप नहीं है । इस तरह पाँची ही पाप अपेक्षा भेद से कर्तव्याकर्तव्य रूप है। प्राक्षेपक एक तरफ तो यह कहते है कि धर्मविरुद्ध कार्य त्रिकाल में भी धर्मानुकुल नहीं हो सकता परन्तु मरी तरफ, त्रिकाल की बान जाने दीजिये एक ही काल में, कहने है कि पुनर्विवाह विधवा के लिये धर्मविरुद्ध है और विधुर के लिये धर्मानुकल है । क्या यहाँ पर एक ही कार्य द्रव्यादि चतुष्टय में से दृश्यअपेक्षा विविधरूप नहीं कहा गया है । ये ही लोग कहते है कि अष्टद्रव्य से जिनपूजन धर्म है, परन्तु भगी अगर: ऐना करे तो धर्म इव जायगा । यदि जिन पूजन किसी भी तरह श्रधर्म नहीं हो सकता तो भंगी के लिये धर्म क्यों हा जायगा ? मतलब यह है कि द्रव्य क्षेत्र काल मात्र की अपेक्षा लेकर एक कार्य को विविधरूप में ये खुद मानते हैं। इसीलिय सप्तम प्रतिमा के नीचे विवाह (मले ही वह विधवाविवाह हो) धर्मानुकूल है । बह्मचर्य प्रतिमा से लेकर यह धर्मविरुद्ध है। प्राक्षेप (ख)-विवाह क्रिया स्वय सदा सर्वदा सर्वथा धार्मिक ही है । हाँ! पात्र अपात्र के भेद से उसे धर्मः विरुद्ध कह दिया जाता है।
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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