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________________ ( १३७ ) कुपुस्तकों को पुराने जमाने का जैनगज़ट ही समझना चाहिये। वास्तव में कोई जैन ग्रन्थ विधवाविवाह का विरोधी नहीं हो सकता और न कोई प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ है ही। नाना तरह की दीक्षाएँ जो शास्त्रों में पाई जाती है वे विशेष चूतियों के लिये ही है-माधारण अणुवतियों के लिये नहीं। वृद्धों को मुनि बनते न देखकर हम में चलमलिन आदि दोष कैसे पैदा होंगे? इससे तो यही सिद्ध होता है कि जब वृद्ध लोग बह्मचर्य से नहीं रह पाते और उनका ब्रह्मचर्य से न रहना इनना निश्चित है कि भठ्याहु ने पहिले से ही कह दिया है. तब विषयाएँ ब्रह्मचर्य से कैसे रहेंगी? मदयाहु श्रुतकेवली ने वृद्धों के मुनि न होने की विशेष बान तो कही, परन्तु विधवाओं के विवाह की विशेष वान न कही , इससे मालूम होता है कि विधवाविवाद प्राचीनकाल सं चला पाता है। यह काई ऐसी विशेष और अनुचित बान न थी जिसका कि चन्द्रगुप्त को दुस्वप्न होता और मढ़वाहु श्रुतफेवली उसका फल कहते । जो चाहे, जैसे चाहे, विचार करले, उसे स्वीकार करना पडेगा कि गृहस्यों के लिये जैनधर्म में विधवाविवाह विरोध की परमाणु बगवर मी गुमायश नहीं है। इस प्रश्न में यह पूछा गया है कि धर्मविरुद्ध कार्य किसी हालत में ( उमस बढ़कर धर्मविरुद्ध कार्य अनिवार्य होने पर) कर्तव्य हो सकता है या नहीं ? इसके उत्तर में हमने कहा था कि हो सकता है । यह यात अनेक उदाहरणों से भी समझाई थी। विधवाविवाह व्यभिचार है आदि बातों का उत्तर हम दे चुके है। आक्षेप (क)-जो कार्य धर्मविरुद्ध है, वह त्रिकाल में मी (कदापि) धर्मानुकूल नहीं हो सकता । पाँच पापों को धर्मानुकूल सिद्ध कीजिये । (श्रीलाल, विद्यानन्द)
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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