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________________ ( 88 ) है कि लड़का बाप की सम्पत्ति का मालिक नहीं होता। यह कानून है परन्तु न्याय नहीं । प्रजा में फूट डालकर मनमाना शासन करने की पॉलिसी, नीति है, परन्तु यह न्याय नहीं है। इसी तरह "मिलजुल कर पञ्चों में रहिये, प्राण जॉय साँची नहीं कहिये' की नीति है परन्तु यह न्याय नहीं है । योरोप में ड्यूअल का रिवाज था और कहीं कहीं अब भी है, परन्तु यह न्याय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें सबल का ही न्याय कहलाता है । 'जिसकी लाठी उसकी भैस' यह भी एक नीति है परन्तु न्याय नहीं । इसलिये नीतिवाक्य का उद्धरण देकर न्यायोचितता का विरोध करना व्यर्थ है। दूसरी बात यह है कि चाणक्य ने खुद स्त्रियों के पुनविवाह के कानून बनाये हैं जिनका उल्लेख २७ वे प्रश्न में किया गया था। इस लेख में भी आगे किया जायगा। यहाँ सिर्फ एक वाक्य उधृत किया जाता है-'कुटुम्बद्धिलोपे वा सुखावस्थैविमुक्ता यथेष्ट विन्देन जीविनार्थम् । अर्थात् कुटुम्ब की सम्पत्ति का नाश होने पर अथवा समृद्ध बन्धुवाँधयों से छाई जाने पर काई त्री, जीवननिर्वाह के लिये अपनी इच्छा के अनुसार अन्य विवाह कर सकती है। चाणक्यनीति का उल्लेख करने वाला जग इस वाक्य पर भी विचार करे । साथ ही यह भी ख्याल में रक्खे कि ऐस ऐसे दर्जनों वाक्य चाणक्य ने लिखे हैं । जब हम दोनों वाक्यों का समन्वय करते हैं तब चाणक्यनीति के श्लोक से पुनर्विवाह का ज़रा भी विरोध नहीं होता। उम श्लोक से इतना ही मालूम होता है कि वाप को चाहिये कि वह अपनी पुत्री एक ही बार देवे । विधवा होने पर या कुटुम्बियों के नाश होने पर देने की ज़रूरत नहीं है । उस समय तक उसे इतना अनुभव हो जाता है कि वह स्वयं अपना पुनर्विवाह कर सकती है। इसलिये पिता को
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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