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________________ ज्योतिष देव विस्तार ५३७. पुण्य द्वार-जितने पुण्य व्यतर देव सौ वर्ष में क्षय करते है, उतने पुण्य नागादि ६ देव २ सौ वर्ष मे, असुर ३ सौ वर्ष मे ग्रह-नक्षत्र तारा ४ सौ वर्ष मे चंद्र-सूर्य ५ सौ वर्ष मे, सौधर्मईशान १ हजार वर्ष में ३-४ देव० २ हजार वर्ष मे, ५.६ देव० ३ हजार वर्ष में, ७.८ देव० ४ हजार वर्ष मे, ६ से १२ देव० ५ हजार वर्ष मे, १ ली त्रिक १ लाख वर्ष मे, दूसरी त्रिक २ लाख वर्ष मे, तीसरी त्रिक ३ लाख वर्ष मे, ४ अनु० विमान ४ लाख वर्ष मे और सर्वार्थ सिद्ध के देवता ५ लाख वर्ष मे इतने पुण्य क्षय करते है। सिद्ध द्वार-वैमानिक देव में से निकले हुए मनुष्य मे आकर एक समय मे १०८ सिद्ध हो सकते है । देवी में से निकल कर २० सिद्ध हो सकते है। भव द्वार-वैमानिक देव होने के वाद भव करे तो जघन्य १-२-३ सख्यात, अस० यावत् अनंत भव भी करे। उत्पन्न द्वार-नव वेयक वैमानिक देव रूप मे अनंती वार यह जीव उत्पन्न हो चुका है। ४ अनु० वि० मे जाने के बाद सख्यात (२-४) भव मे और सर्वार्थ सिद्ध से १ भव मे मोक्ष जावे। ___ अल्पबहुत्व द्वार--सब से कम ५ अनुत्तर विमान मे देव, उनसे उतरते २ नववे देवलोक तक सख्यात गुणा, ८ में से उतरते दूसरे देवलोक तक असख्यात गुणा देव, उनसे दूसरे देव की देविये सख्यात गुणी, उनसे पहले देवलोक के देव सख्यात गुणा और उनसे पहले देवलोक की देविये संख्यात गुणी ।
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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