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धर्म - ध्यान
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जिसमे चोरासी लाख नरक वासे है और सात क्रोड़, बहत्तर लाख भवनपति के भवन है । ऐसे तीन लोक के सर्व स्थानक को समकित रहित करणी बिना सर्व जीव अनन्ती वार जन्म मरण द्वारा फरस कर छोड़ चुके है । ऐसा जानकर समकित सहित श्रुत और चारित्र धर्म की आराधना करनी चाहिये, जिससे अजरामर पद की प्राप्ति होवे ।
धर्म ध्यान के चार लक्षण :
१ आणारुई — वीतराग की आज्ञा अङ्गीकार करने की रुचि उपजे, उसे आणारुई कहते है ।
२ निसग्गरुई : - जीव की स्वभाव से ही तथा जाति स्मरणादिक ज्ञान से श्रुत सहित चारित्र धर्म करने की रुचि उपजे, इसे निसग्ग रुई कहते है ।
३ सूत्र रुई :- इसके दो भेद – १ अङ्ग पविट्ठ २ अङ्ग बाह्य | आचारांगादि १२ अङ्ग अङ्गपविट्ठ है । इनमे से ११ अङ्ग कालिक और बारहवाँ अग दृष्टिवाद यह उत्कालिक । अग बाह्य के दो भेद :- १ आवश्यक, २आवश्यक व्यतिरिक्त । आवश्यक-सामायिकादिक छ अध्ययन उत्कालिक तथा उत्तराध्ययनादिक कालिकसूत्र । उववाई प्रमुख उत्कालिक सूत्र सुनने की तथा पढने की रुचि उत्पन्न होवे उसे सूत्र - रुचि कहते है ।
४ उवएसरुई :- अज्ञान द्वारा उपार्जित कर्मो को ज्ञान द्वारा खपावे ज्ञान से नये कर्म न वांधे, मिथ्यात्व द्वारा उपार्जित कर्मों को समकित द्वारा खपावे, समकित के द्वारा नवीन कर्म नही बाधे । अव्रत से बंधे हुए कर्मो को व्रत द्वारा खपावे व व्रत से नये कर्म न बाधे । प्रमाद द्वारा उपार्जित अप्रमाद से खपावे और अप्रमाद के द्वारा नये कर्म न बाधे । कषाय द्वारा बधे हुए कर्मो को अकषाय द्वारा खपावे व अकषाय के द्वारा नये कर्म न बाधे । अशुभ योग से