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________________ गर्भ विचार ३६३ नाभि से पच्चीश नाडी ऊपर की ओर श्लेष्म द्वार तक गई हुई है। जो श्लेष्म की धातु को पुष्ट करती है। इनमे नुकसान होने पर श्लेष्म, पीनस का रोग हो जाता है। अन्य पच्चीश नाडी इसी तरफ आकर पित्त धातु को पुष्ट करती है। जिनमे नुकसान होने पर पित्त का प्रकोप तथा ज्वरादिक रोग की उत्पत्ति होने लग जाती है । तीसरी दश नाडिएँ वीर्य धारण करने वाली है जो वीर्य को पुष्ट करती है। इनके अन्दर नुकसान होने पर स्वप्नदोष मुख-लाल पूणित पेशाब आदि विकारो से निर्बलता आदि में वृद्धि होती है। एव सर्व मिलाकर ७०० नाडी रस खीच कर पुष्टि प्रदान करती है व शरीर को टिकाती है । नियमित रूप से चलने पर निरोग और नियम भङ्ग होने पर रोगी (शरीर) हो जाता है। इसके सिवाय दो सौ नाडी और गुप्त तथा प्रगट रूप से शरीर का पोषण करती है। एव सर्व नव सौ नाडिये हुई । उक्त प्रकार से नव मास के अन्दर सर्व अवयव सहित शरीर मजबूत बन जाता है । गर्भाधान के समय से जो स्त्री ब्रह्मचारिणी रहती है उसका गर्भ अत्यन्त भाग्यशाली, मजबूत बन्धेज का, वलवान तथा स्वरूपवान होता है न्याय नीति वाला और धर्मात्मा निकलता है। उभय कुलो का उद्धार करके माता पिता को यश देने वाला होता है और उसकी पांचो ही इन्द्रिये अच्छी होती है । गर्भाधान से लगा कर सन्तति होने तक जो स्त्री निर्दय बुद्धि रख कर कुशील (मैथुन) का सेवन करती है तो यदि गर्भ मे पुत्री होवे तो उनके माता पिता दुष्ट मे दुष्ट, पापी मे पापी और रौरव नरक के अधिकारी बनते है। गर्भ भी अधिक दिनों तक जीवित नही रहता यदि जिन्दा रहे भी तो वह काना, कुबडा, दुर्बल, शक्ति हीन तथा खराब डीलडौल का होता है। क्रोधी, क्लेशी,प्रपची और खराब चाल चलन वाला निकलता
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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