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________________ ३५८ जैनागम स्तोक संग्रह है। इसमें विशेषता यह है कि पाचवी रात्रि को उत्पन्न होने वाली पुत्री कालांतर में अनेक पुत्रियो की माता बनती है। पांचवी, सातवी, नववी, ग्यारहवी, तेरहवी, पन्द्रहवी एवं विषम ( एकी की) रात्रि का बीज पुत्र रूप मे उत्पन्न होता है और वह ऊपर कहे गुण वाला निकलता है । दिन का संयोग शास्त्र द्वारा निषेध है । इतने पर भी अगर होवे ( सन्तान ) तो वह कुटुम्ब की तथा व्यावहारिक सुख व धर्म की हानि करने वाला निकलता है। गर्भ में पुत्र या पुत्री होने का कारण वीर्य के रजकरण अधिक और रुधिर के थोड़े होवे तो पुत्र रूपफल की प्राप्ति होती है। रुधिर अधिक और वीर्य कम होवे तो पुत्री उत्पन्न होती है । दोनों समान परिमाण मे होवे तो नपु सक होता है। ( अब इनका स्थान कहते है ) माता के दाहिनी तरफ पुत्र, वायी कुक्षि मे पुत्री और दोनो कुक्षि के मध्य में नपुंसक के रहने का स्थान है। गर्भ की स्थिति मनुष्य गर्भ में उत्कृष्ट वारह वर्ष तक जीवित रह सकता है। बाद मे मर जाता है, परन्तु शरीर रहता है, जो चौबीस वर्ष तक रह सकता है। इस सूखे शरीर के अन्दर चौवीसर्व वर्ष नया जीव उत्पन्न होवे तो उसका जन्म अत्यन्त कठिनाई से होता है । यदि नही जन्मे तो माता की मृत्यु होती है। सज्ञी तिर्यञ्च आठ वर्ष तक गर्भ में जीवित रहता है । आहार की रीति कहते है-योनि कमल में उत्पन्न होने वाला जीव प्रथम माता पिता के मिले हुए मिश्र पुद्गलो का आहार करके उत्पन्न होता है इसका अर्थ प्रजा द्वार से जानना । विशेष इतना है कि यह आहार माता पिता का पुद्गल कहलाता है। इस आहार से सात धातु उत्पन्न होती है। इनमे-१ रसी (राध) २ लोही ३ मांस ४ हड्डी ५ हड्डी की मज्जा ६ चर्म ७ वीर्य और नसा जाल एवं सात मिल कर दूसरी शरीर पर्याय अर्थात् सूक्ष्म पुतला कहलाता है । छ: पर्या० बंधने के बाद वह बीजक (वीर्य) सात
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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