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जैनागम स्तोक संग्रह व्याघात समझना । गर्भस्थान के लिये यह समझना चाहिये कि माता के नाभि मंडल के नीचे फूल के आकर-वत् दो नाडिये है। इन दोनो के नीचे उधे फूल के आकारवत् एक तीसरी नाड़ी है कि जो योनि नाड़ी कहलाती है जिसमे जीव के उत्पन्न होने का स्थान है। इस योनि के अन्दर पिता तथा माता के पुद्गल का मिश्रण होता है । योनि रूप फूल के नीचे आम्र की मंजरी के आकर एक मांस की पेशी होती है जो हर महीने प्रवाहित होने से स्त्री ऋतु धर्म के अंदर आती है । यह रुधिर ऊपर की योनि नाडी के अन्दर ही आया करता है कारण कि वह नाडो खुली हुई ही रहती है। चौथे दिन ऋतुश्राव बन्द होजाता है। परन्तु अभ्यन्तर मे सूक्ष्म श्राव रहता है । स्नान करने पर पवित्र होता है । पाँचवे दिन योनि नाडी मे सूक्ष्म रुधिर का योग रहता है उस समय यदि वीर्यबिन्दु की प्राप्ति होवे तो उतने समय के लिए वह मिश्रयोनि कहलाती है और यह फल प्राप्ति के योग्य गिनी जाती है। यह मिश्रपना बारह मुहुर्त रहता है कि जिस अवधि में जीव की उत्पत्ति हो, इसमे एक, दो तीन आदि नव लाख तक उत्पन्न हो सकते है। इनका आयुष्य जघन्य अन्तमु० उत्कृष्ट तीन पल्योपम का। इस जीव का पिता एक ही होता है, परन्तु अन्य अपेक्षा से नव सो पिता तक शास्त्र का कथन है। यह संयोग से सम्भव नही है परंतु नदी के प्रवाह के सामने बैठ कर स्नान करने के समय उपरवाड़े से खिंच कर आये हुए पुरुष विन्दु (वीर्य ) में सैकड़ो रजकण स्त्री के शरीर में पिचकारी के आकर्षण की तरह आकर भर जाते है । कर्मयोग से उसके व्कचित् गर्भ रह जाता है तो जितने पुरुषो के रजकण आये हुए हो, वे सब पुरुष उस जीव के पिता तुल्य माने जाते है । एक साथ दश हजार तक गर्भ रह सकता है पर मच्छी तथा सर्पनी माता का न्याय है । मनुष्य के अधिक से अधिक तीन सन्ताने हो सकती है शेष मरण पा जाते है । एक ही समय नव लाख उत्पन्न होकर यदि मर जावे तो वह स्त्री जन्म पर्यत बांझ रहती है। दूसरी तरह जो स्त्री कामांध बन कर