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________________ पुद्गल परावर्त ३५३ गुरु - हे शिष्य ! जब तोसरी इन्द्रिय पर्या० बाध कर जीव कररणपर्याप्त होता है तब मृत्यु प्राप्त कर सकता है । इस न्याय से पर्याप्ता होकर मरण पाता है, परन्तु करण अपर्याप्ता पने कोई जीव मरण पावे नही । वैसे ही दूसरे प्रकार से अप० पने का मरण कहने में आता है । यह लब्धि अप० का मरण समझना । यह इस तरह से कि चार वाला तीसरी, पाँच वाला तीसरी चौथी छ० वाला तीसरी चौथी और पाचवी पर्याप्ति पूरी बधने के बाद मरण पाते है | अब दूसरे प्रकार से अप० व पर्याप्ता इसे कहते है कि जिस जीव को जितनी पर्या० प्राप्त हुई अर्थात् बधी उसको उतनी पर्या० का पर्याप्ता कहते है और जो बधना बाकी रही, उसे उसकी अप० अर्थात् उतनी पर्या० की प्राप्ति नही हो सकी यह भी कह सकते है । ऊपर बताये हुए अपर्याप्ता और पर्याप्ता के भेदो का अर्थ समझ कर गर्भज, नो गर्भज और एके० आदि असज्ञी पचे जीवो को ये भेद लागू करने से जीव तत्व के ५६३ भेद व्यवहार नय से गिनने मे आते है और ये सर्व कर्म विपाक के फल है, इससे जीवो की ८४ लक्ष योनियो का समावेश होता है । योनियो मे वार-बार उत्पन्न होना, जन्म लेना व मरण पाना आदि को ससार समुद्र के नाम से सम्बोधित करते है । यह सब समुद्रो से अनत गुरगा बड़ा है । इस ससार समुद्र को पार करने ले लिये धर्मरूपी नाव है और जिसके नाविक (नाव को चलाने वाले) ज्ञानी गुरु है । इनकी शरण लेकर, आज्ञानुसार, विचार कर प्रवर्तन करने वाला भाविक भव्य कुशलता पूर्वक प्राप्त की हुई जिन्दगी (जीवन) को सार्थकता प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार अन्य भी आचरण करना योग्य है । २३
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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