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________________ पुद्गल परावर्त भगवती सूत्र के १२ वे शतक के चौथे उद्दशे में पुद्गल परावर्त का विचार है सो नीचे अनुसार गाथा : - नाम१; गुरण; सख्ख३; त्ति ठाणं४; कालं; कालोवमं च६; काल अप्प बहु७; पुग्गल मझ पुग्गलं; पुग्गल करणं अप्पबहु । पुद्गल परावर्त समझाने के लिये नव द्वार कहते हैं । १ नाम द्वार १ औदारिक पुद्गल परावर्त, २ वैक्रिय पुद्गल परावर्त, ३ तेजस् पुद्गल परावर्त, ४ कार्मण पुद्गल परावर्त, ५ मन पुद्गल परावर्त ६ वचन पु० परावर्त, ७ श्वासोश्वास पु० परावर्त । २ गुण द्वार पुद्गल परावर्त किसे कहते है ? इसके कितने प्रकार होते है ? इसे किस तरह समझना आदि सहज प्रश्न शिष्य के द्वारा पूछे जाते है | तब गुरु उसका उत्तर देते है : इस संसार के अन्दर जितने पुद्गल हैं, उन सबो को जीव ने ले-लेकर छोडे है । छोड़ कर पुनः पुनः फिर ग्रहण किये है। पुद्गल परावर्त शब्द का यह अर्थ है कि पुद्गल -सूक्ष्म रजकण से लगाकर स्थूल से स्थूल जो पुद्गल है, उन सबों के अन्दर जीव परावर्त समग्र प्रकार से फिर चुका है, सब में भ्रमण कर चुका है । औदारिकपने (औदारिक शरीर रह कर औदारिक योग्य जो पु० ३१०
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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