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________________ २०४ जैनागम स्तोक संग्रह १०. दसवी प्रतिमा सात अहोरात्रि की । ऊपर समान, विशेष तीन में से एक आसन करे, गोदूह आसन, वीरासन और अम्बुज आसन । ११. ग्यारहवी प्रतिमा एक आहोरात्रि की। जल बिना छ? भक्त करे, ग्राम बाहर दो पांव संकोच कर हाथ लम्बे कर कायोत्सर्ग करे। १२. बारहवी प्रतिमा एक रात्रि की। जल बिना अठम भक्त करे। ग्राम नगर वाहन शरीर तज कर व ऑखो की पलक नही मारते हुवे एक पुद्गल ऊपर स्थिर दृष्टि करके, तमाम इन्द्रियो गोप करके, दोनों पॉव एकत्र करके और दोनों हाथ लम्बे करके दृढासन से रहे। इस समय देव, मनुष्य, व तिर्यंच द्वारा कोई उपसर्ग होवे तो सहन करे। सम्यक् प्रकार से आराधन होवे तो अवधिज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान तथा केवलज्ञान प्राप्त होवे यदि चलित होवे तो उन्माद पावे, दीर्घ कालिक रोग होवे और केवली प्रणित धर्म से भ्रष्ट होवे । एवं इन सब प्रतिमा में आठ माह लगते है । १३ तेरह प्रकार का क्रिया स्थानक : (१) अर्थ दण्ड-अपने लिये हिसा करे। (२) अनर्थ दण्ड-दूसरो के लिये हिसा करे। (३) हिसा दण्ड-यह मुझे मारता है, मारा था व मारेगा ऐसा संकल्प करके मारे। (४) अकस्मात् दण्ड–एक को मारने जाते समय अचानक दूसरे की घात होवे। (५) दृष्टि विपर्यास दण्ड-शत्र समझ कर मित्र को मारे ।। (६) मृषावाद दण्ड-असत्य बोल कर दण्ड पावे। (७) अदत्तादान दण्ड-चोरी करके दण्ड पावे । (८) अभ्यस्थ दण्ड-मन में दुष्ट, अनिष्ट कल्पना करे। (8) मान दण्ड-अभिमान करे।
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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