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श्री गुणस्थान द्वार
१८३ मुक्त धूम्र वत् । उस सिद्ध क्षेत्र में जाकर साकारोपयोग से सिद्ध होवे, वुद्ध होवे, परांगत होवे, परंपरांगत होवे सकल कार्य—अर्थ साध कर कृतकृतार्थ निप्ठितार्थ अतुल सुख सागर निमग्न सादि अनन्त भागे सिद्ध होने । इस सिद्ध पद का भाव स्मरण चिंतन मनन सदा सर्वदा काले मुझको होने ? वह घड़ी पल धन्य सफल होने । अयोगी अर्थात् योग रहित केवल सहित विचरे उसे अयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं।
३ : स्थिति द्वार पहले गुणस्थान की स्थिति ३ प्रकार को :-"अणादिया अपज्जवसिया" याने जिस मिथ्यात्व की आदि नहीं और अन्त भी नहीं। अभव्य जीव के मिथ्यात्व आश्री । २ अणादिया सपज्जवसिया अर्थात् जिस मिथ्यात्व की आदि नहीं परन्तु अन्त है । भव्य जीव के मिथ्यात्व आश्री । ३ सादिया सपज्जवसिया अर्थात् जिस मिथ्यात्व की आदि भी है और अन्त भी है। पडिवाई समदृष्टि के मिथ्यात्व आश्री। इसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन में देश न्यून । वाद में अवश्य समकित पाकर मोक्ष जावे । दूसरे गणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय की उ० ६ आवलिका व ७ समय की। तीसरे गुणस्थान की स्थिति ज० उ० अन्तर्मुहूर्त की चौथे गुणस्थान की स्थिति ज० अन्तर्मुहूर्त की उ०६६ सागरोपम झाझेरी । २२ सागरोपम की स्थिति से तीन वार वारहवें देवलोक में उपजे तथा दो वार अनुत्तर विमान में ३३ सागरोपम की स्थिति से उपजे ( एव ६६ सागरोपम ) और तीन करोड़ पूर्व अधिक मनुष्य के भव आत्री जानना । पांचवे, छ, तेरहवे गुणस्थान की स्थिति ज० अन्तमुहूर्त उ० देश न्यून ( उणी ) || वर्ष न्यून एक करोड़ पूर्व की, सातवे से ग्यारहवे तक ज० १ समय उ० अन्तर्मुहूर्त वारहवे गण की स्थिति ज० उ० अन्तर्मुहूर्त चौदहवे गुण० की स्थिति पांच