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________________ १७४ जैनागम स्तोक सग्रह और इसके नष्ट होने पर जीव भी नष्ट होता है। पाँच भूत जड़ है, इनसे चैतन्य उपजे व नष्ट होवे ऐसी परूपना विपरीत श्रद्ध, परूपे फरसे उसे मिथ्यात्व कहते है। जैन मार्ग से आत्मा अकृत्रिम (स्वाभाविक) अखण्ड अविनाशी व नित्य है, सारे शरीर में व्यापक है तिवारे (तब) गौतम स्वामी वन्दना करके श्री भगवन्त को पूछने लगे-"स्वामीनाथ ! मिथ्यात्वी जीव को किन गणों की प्राप्ति होवे ?" तब श्री महावीर स्वामी ने जवाब दिया कि यह जीवरूपी दड़ी (गेद) कर्मरूपी डण्डे (गुटाटी) से ४ गति २४ दण्डक ८४ लाख जीव योनि में बार-बार परिभ्रमण करता रहता है, परन्तु संसार का पार अभी तक पाया नहीं। , २ सास्वादान गुणस्थान :-दूसरे गुणस्थान का लक्षण - जिस प्रकार (जैसे) कोई पुरुष खीर खाण्ड का भोजन करके फिर वमन करे उस समय कोई पुरुष उससे पूछे कि-"भाई खीर-खाण्ड का कैसा स्वाद है ?" उस समय उसने उत्तर दिया-"थोडा सा स्वाद है।" इस प्रकार भोजन के (स्वाद) समान समकित व वमन के (स्वाद के) समान मिथ्यात्व। दूसरा दृष्टान्त :-जैसे घण्टे का नाद प्रथम गहर गम्भीर होता है और फिर थोड़ी सी झनकार शेष रह जाती है, उसी प्रकार गहर गम्भीर शब्द के समान 'समकित और झनकार समान मिथ्यात्व। . तीसरा दृष्टान्त :-जीव रूपी आम्र वृक्ष, प्रमाण रूप शाखा, समकित रूप फल, मोह रूप हवा चलने से प्रमाण रूप डाल से समकित रूप फल टूट कर पृथ्वी पर गिरा, परन्तु मिथ्यात्व रूप पृथ्वी पर फल गिरा नही, अभी बीच मे ही है इस समय तक (जब तक वह बीच में है ) सास्वादान गुणस्थान रहता है और जब पृथ्वी पर गिर पड़ा तब मिथ्यात्व गुणस्थान । गौतम स्वामी हाथ जोड़ी
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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