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________________ १४० छः आरो का वर्णन करोडी सागरोपम का 'सुखमा' ( केवल सुख ) नामक दूसरा आरा आरम्भ होता है । उस वक्त पहिले से वर्ण, गध,रस, स्पर्श के पुद्गलों की उत्तमता मे अनन्त गुणी हीनता हो जाती है । इस आरे में मनुष्य का देहमान दो कोस का व आयुष्य दो पल्योपम का होता है। उतरते आरे एक कोस का शरीर व एक पल्योपम का आयुष्य रह जाता है । घट कर पासलिये १२८ रह जाती है व उतरते आरे ६४ । मनुष्यो मे वज्रऋषभनाराच सघयन व समचतुरस्र सस्थान होता है । इस आरे के मनुष्यो को आहार की इच्छा दो दिन के अन्दर से होती है तब शरीर प्रमाणे आहार करते है । पृथ्वी का स्वाद शर्करा जैसा रह जाता है व उतरते आरे गुड जैसा । इस आरे मे दश प्रकार के कल्पवृक्ष दश प्रकार का मनोवाछित सुख देते है ( पहला आरा समान) मृत्यु के छ महीने जब शेष रहते है तब युगलनी एक पुत्र-पुत्री का प्रसव करती है । बच्चे-बच्ची का ६४ दिन पालन करने के बाद वे (पुत्र-पुत्री) दम्पति बन सुखोपभोग करते हुए विचरते है और उनके माता-पिता एक को छीक और दूसरे को उबासी आते ही मर कर देव गति मे जाते है। क्षेत्राधिष्ठित देव इनके मृतक शरीर को क्षीर सागर में डाल कर मतक क्रिया करते है । गति एक देव की । इस आरे मे ईर्ष्या नही, वर नही, जरा नही, रोग नही, कुरूप नही, परिपूर्ण अङ्ग उपाङ्ग पाकर सुख भोगते है । ये सब पूर्व भव के दान पुन्यादि सत्कर्म का फल जानना । तीसरा आरा (३) यो दूसरा आरा समाप्त होते ही दो करोडाकरोड़ सागरोपम का 'मुखमा-दुखमा' (सुख बहुत दु ख थोडा) नामक तीसरा आरा शुरू होता है तब पहिले से वर्ण-गध-रस स्पर्श की उत्तमता में हीनता हो जाती है। क्रम से घटते.घटते मनुष्यो का देहमान एक गाउ ( कोश ) का व आयुष्य एक पल्योपम का रह जाता है उतरते
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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