SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठ कर्म की प्रकृति १२७ ३ अनन्तानुबन्धी माया-वॉस की जड़ (मूल) समान ४ , , लोभ-कीरमची रग समान इन चार प्रकृति की गति नरक की, स्थिति जावजीव की, घात करे समकित की। ५ अप्रत्याख्यानी क्रोध-तालाब की तीराड़ के समान , मान-हड्डी के स्तम्भ समान ७ , , माया-मेढे के सीग समान ८ , लोभ-नगर की गटरके कर्दम (कादा) समान । इन चार की गति तिर्यञ्च की, स्थिति एक वर्ष की, घात करे देश व्रत की। ___६ प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध-बालु (रेत) की भीत (दीवार) समान । १० प्रत्याख्यानावरणीय मान-लक्कड के स्तम्भ समान ११ , , माया-गौमूत्रिका (बेल मूतणी) समान १२ , , लोभ- गाडा का आजन (कज्जल), इन चार की गति-मनुष्य की, स्थिति चार माह की, घात करे साधुत्व की १३ सज्वलन क्रोध-जल के अन्दर लकीर समान १४ , मान-तृण के स्तम्भ समान १५ , माया- बास की छोई (छिलका) समान १६ , लोभ-पतंग तथा हल्दी के रग समान इन चार की गति-देव की, स्थिति १५ दिनो की घात करे केवलज्ञान की।
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy