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श्रावक उन सब का पूर्णतया पालन करता है । वह श्रावक पद का अराधक है, ऐसा सूत्र में कहा है । वह मर्यादा के विरुद्ध कोई आचरण नहीं करता। लेकिन साधु तो मर्यादा के विरुद्ध आचरण करते हैं, क्योंकि परिग्रह में शरीर की भी गणना है । साधुओं को शरीर से ममत्व है या नहीं ? यदि नहीं, तो नित्य घर घर भोजन के लिए क्यों भटकते हैं ? शीत, ताप और वर्षा से बचने का प्रयत्न क्यों करते हैं ! पैर में एक छोटासा काँटा भी लग जाता है, तो निकालने क्यों बैठते हैं ? रोग होने पर वैद्य, डाक्टर को शरण क्यों लेते हैं ? अर्श होने पर ऑप्रेशन क्यों करने देते हैं ? यदि कोई ऑप्रेशन करने लगे, तो उसको रोक
* तेरह-पन्थी, 'भ्रम-विध्वंसन' पृष्ठ २६८ में कहते हैं- 'जे अर्श छेदे. ते वैद्य ने क्रिया लागे, अने जे साधु नी अर्श छेदाणी, तेहने क्रिया न लागे' इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं'तिवारे कोई कहे, ए वैद्य ने क्रिया कही ते पुण्य नी क्रिया छे, पिण पाप नी क्रिया नहीं । एहवो ऊँधो अर्थ करे, तेहने उत्तर—- इहाँ कह्यो, अर्श छेदे ते वैद्य ने क्रिया लांगे, पिण 'धर्मान्तराय साधु रे पड़ी। धर्मान्तराय ते धर्म में विघ्न पढ्यो, तो जे - साधु रे धर्मान्तराय पाडे, तेहने शुभ क्रिया क्रिम हुवे ? ए धर्मान्तराय पाड्याँ तो पुण्य बँधे नहीं । धर्मान्तराय पाड्याँ तो पाप नी क्रिया लागे छे ।'
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