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लोग हमको उल्टा समझा रहे हैं। उसको मालूम नहीं है कि जो जीव कसाई द्वारा मारा जा रहा है, वह जीव भी महा कठिन कर्म बाँध रहा है किन्तु "पूर्व संचित कर्म चुका नहीं रहा है" । इस
जानकारी के कारण वे लोग तेरह-पन्थियों की घात को ठीक मानकर, मरते हुए जीव को बचाने, दीन-दुःखी की सहायता करने आदि समस्त परोपकार के कार्यों को पाप मानने लगते हैं और सोचते हैं कि जो मर रहा है या दुःख पा रहा है, वह अपने कर्म भोग रहा है । हम उसको कर्म भोगने से क्यों रोकें ?
तेरह - पन्थियों की इस कुयुक्ति पर हम सत्य का प्रकाश
डालकर बताते हैं, कि तेरह - पन्थी साधुओं का यह कथन कितना झूठ, कितना धोखे में डालने वाला और कितना शास्त्र-विरुद्ध है । तथा, यदि इसी सिद्धान्त का व्यवहार उन्हीं के साथ किया जावे, तो उनको बुरा तो न मालूम होगा ? वे काठियावाड़ या पंजाब आदि से जल्दी ही तो न लौट जावेंगे ?
सब से पहले यह देखना है कि क्या अज्ञान पूर्वक कष्ट सहने या मरने से भी कर्म की सकाम निर्जरा होती है ? क्या चिल्लाते, रुदन करते तथा हाय वॉय करते और दुःख करते हुए मरने अथवा कष्ट सहने से कर्म ऋण चुकता है ? इन प्रश्नों पर शास्त्रीय दृष्टि से विचार करने पर मालूम होगा कि ऐसा कदापि नहीं हो सकता । यदि इस प्रकार के मरण या कष्ट सहने से कर्म