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मारा जाता हुश्रा जीव, कर्म की निर्जरा नहीं करता, किन्तु अधिक कर्म वाँधता है।
-- .. तेरह-पन्थी लोग कहते हैं कि जो जीव मर रहा है या कष्ट पा रहा है, वह अपने पूर्व संचित कर्म का भुगतान कर रहा है। ऐसे जीव को मरने से बचाना या उसकी सहायता करके उसको कष्ट-मुक्त करना, उस जीव को अपने ऊपर चढ़ा हुश्रा कम ऋण चुकाने से वंचित रखना है। वे कहते हैं___ "साधु तो जीवाँ ने क्याँ ने वचावे ते तो पच रह्या निन कमों जी। कोई साधु री संगत आय करे तो सिखाय देवे जिन धर्मोजी ॥"
('अनुकम्पा ढाल 8वीं गाथा ३६) "जो बकरा रो जीवणो वांछे नहीं लिगार । तिण ऊपर दृष्टान्त ते सांभलजो मुखकार ॥ साहुकार रे दोय सुत एक कपूत अवधार । ऋण करडी जागाँ तणू माथे करे अपार ।।