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और पंचेन्द्रिय जीव समान नहीं है, किन्तु एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीवों का महत्व बहुत अधिक है। पंचेन्द्रिय जीव की रक्षा के लिए एवं पंचेन्द्रिय जीव के कल्याण के लिए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा नगण्य है। एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होते हुए भी पंचेन्द्रिय जीव ( मनुष्य ) का हित साधु को करना, जैन शान सम्मत है। तेरह-पन्थी लोग दया दान के विरोधी होने से ही एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव को समान बताकर एकेन्द्रिय की हिंसा के नाम पर पंचेन्द्रिय की रक्षा को पाप बताते हैं। वे लोगों को धोखे में डालते हैं, लोगों में भ्रम फैलाते हैं और जैन धर्म के नाम पर लोगों को उल्टे मार्ग पर ले जाते हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो फिर तेरह-पन्थी साधु स्थावर जीवों की रक्षा के लिए
(१) प्रतिलेखन करना क्यों नहीं त्यागते ? (२) रजोहरण का उपयोग करना क्यों नहीं छोड़ते ? (३) प्रामानुग्राम विहार करना क्यों नहीं त्यागते ? (४) आहार-पानी त्याग कर संथारा क्यों नहीं कर लेते ? (५) नदी के पार जाना क्यों नहीं छोड़ते ?
(६) पंचेन्द्रिय जीव के मर जाने पर ज्यादा प्रायश्चित क्यों लेते हैं ?
(७) माँस-भक्षी की अपेक्षा अन्न वा वनस्पति-भोजी को बड़ा पापी क्यों नहीं मानते ?