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( १२ ) कुगुरुषों का चलाया हुआ है, जिनको अभ्यन्तर आँखें फूटी हुई हैं और जिन्हें शुद्ध मार्ग नहीं दिखता। रांका ने मार धींगा ने पोसे, आतो वात दीसे घणी गैरी। इण मांही दुष्टी धर्म प्ररुपे तो, रांक जीवां रा उठिया वैरी।।
('अनुकम्पा' ढाल १३वीं) अर्थात्-गरीबों ( स्थावरों ) को मार कर सशक्त (स) का पोषण करना बहुत बुरी बात है, परन्तु गरीयों ( स्थावरों) के शत्रु दुष्ट लोग ऐसे खड़े हुए हैं कि इस कार्य में भी धर्म बताते हैं। जीवां ने मार जीवां ने पोषे ते तो मार्ग संसार नो जाणोजी । तिण मांही साधु धर्म वतावे ते पूरा मूढ़ अयाणोजी । छ: काय रा शस्त्र जीव असंयती त्यारो जीवणों मरणोन चावेजी। त्यांरो जीवणो मरणो साधु चावे तो राग द्वेष वेहूँ आवेजी।
('अनुकम्पा' दाल ६वीं) अर्थात्-ऐसा कहते हैं कि एकेन्द्रिय जीवों को मार कर पंचेन्द्रिय जीवों का पोषण करना संसार का पाप पूर्ण कार्य है। यदि इस तरह के कार्य को कोई साधु धर्म बताता है, तो वह पूरा मूर्ख और अज्ञानी है। अव्रती जीव ( साधु के सिवाय संसार के सभी जीव ) छः काय के जीवों के लिए प्रख के समान है। इसलिए अवती को जीवित रखने या मारने की इच्छा तक