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रक्षा के लिए अनेकों स्थावर प्राणियों की हिंसा क्यों की जावे ? जैसे - किसी को भोजन दिया या पानी पिलाया, तब रक्षा तो एक श्रमा की हुई, परन्तु इस कार्य में असंख्य और अनन्त स्थावर जीवों का संहार हो जाता है, वह पाप उस जीव रक्षा करने वाले को -होगा। इतना ही नहीं किन्तु जो जीव बचा है, उसके जीवन भर खाने पीने अथवा अन्य कामों में जो हिंसा त्रस स्थावर जीवों की होगी, वह हिंसा भी उसी को लगेगो, जिसने उसको मरने से बचाया है ।
दूसरा सिद्धान्त यह है कि जो जीव मरता है अथवा कष्ट पा रहा है वह अपने पूर्व संचित कर्मों का फल भोग रहा है । उसको मरने से बचाना अथवा उसको सहायता करके कष्ट-मुक्त करना, अपने खुद पर का वह कर्म ऋण चुकाने से उसको, वंचित रखना है, जिसे वह मरने या कष्ट सहने के रूप में भोगकर चुका रहा था ।
तीसरी मान्यता यह है कि साधु के सिवाय संसार के समस्त प्राणी कुपात्र हैं । कुपात्र को बचाना, कुपात्र को दान देना, · कुपात्र की सेवा सुश्रूषा करना, सब पाप हैं।
इन्हीं दलीलों (मान्यताओं) के आधार पर तेरह - पन्थी लोग दया और दान को पाप बताते हैं; और इन्हीं सिद्धान्तों की हड़ता के लिए वे कहते हैं कि
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