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उपदेश देने जितना अवकाश नहीं रहा हो, अथवा उपदेश से वह घातक समझे ऐसा न हो, किन्तु उस समय : हिम्मत भरा हुवा पडकार करने मात्र से जो दुष्ट मनुष्य के गात्र थरथरा जाते हो तो भी सिर्फ उपदेश ही सुनाना और यह दृश्य न देखा जाता हो तो वहाँ से चले जाना, भाग छूटना, इसमें दया, अहिंसा या जिन देव प्ररूपित सिद्धान्त की बात तो दूर रही, मनुष्य की मानवता हो कहाँ रही । और जो साधु साध्वी नहीं कर सके, यानि मरते प्राणि को बचाने की क्रिया, जो संसार त्यागी विरागी भी नहीं कर सके, वह श्रावक श्राविका से तो बने ही कैसे ? पामरता की इससे अधिक मर्यादा दूसरी क्या हो सके ।
घातक का घातकीपन और निर्दोष बालक की हत्या यह स शुभाशुभ कर्म का परिणाम है, ऐसा यह वकील भाई अपने
सघ
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को व्यवहार के विषय में भी जँचाना चाहते है, परन्तु यह तत्त्वज्ञान मूल भूमिका वगैर का होने से यहाँ टिक नहीं सकता, कंगाल बन जाता है ।
जैन धर्म के उच्चतम् सिद्धान्तों का यह दुरुपयोग नहीं तो अन्य क्या कहा जाय ? तेरह- पन्थ की जमात जो वृद्धि पायें यानि जगत भर में तेरा-पन्य मान्यता प्रवर्त हो जाय तो समाज की कैसी स्थिती हो ? कदाच समाज जैसा ही कुछ रहने नहीं पावे ।
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