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भय है कि कहीं मेरा रहा सहा पन्थ ही न उड़ जाय । श्री 'भन हृदय' जी के लेखों को तो मैं जैसे तैसे हजम कर गया। मैंने सोचा कि चलो साधुओं के क्रिया कलाप और श्राचरण दुरुस्त नहीं रहे हों तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं, पश्चम काल है, हुण्डा अवसर्पिणी का समय है, मगर श्री बच्छराजजी सिंघी के लेखों ने तो मेरा पन्थ हो उड़ाना प्रारम्भ कर दिया । अब तो मैं देख रहा हूँ, यह पौने तेरह भी कायम रहना कठिन हो रहा है । मुझे यह पूर्ण विश्वास था कि हमारे पूण्यजी महाराज, जो शास्त्र फरमाते हैं, वे सोलह श्राना ठीक और अक्षर अक्षर सत्य हैं मगर सिंघीजी के लेखों ने तो आँखों की पट्टी खोल दो । सम्भवतः मुँह की पट्टी भी जो कभी कभी लगा लेता हूँ, अब खतरे में है ।
हमारे पूज्यनी महाराज जब थली प्रान्त में बिराजते हैं, तब अक्सर मैं सेवा में साथ साथ रहता हूँ। मैं देख रहा हूँ, जब से ये शास्त्रों की बातें, 'तरुण' में आने लगी हैं, हमारे मोटके सन्त आपके 'तरुण' की इन्तजारी में बाट जोते रहते हैं। इधर कुछ समय से आपके 'तरुण' ने भी नखरे से पेश कदमी शुरू कर दी है । 'तरुण' के पहुँचते ही मोटके सन्तों की मीटिंग होने लगती
हैं। पूज्यनी महाराज भी पढ़ते हैं। वातावरण में कुछ हलचल सी
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मच जाती है। उस दिन मेरे सामने ही 'तरुण' की बातें चल रही
थीं। एक अनन्य भक्त और विश्वास पात्र श्रावकं अर्ज कर रहे थे