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श्री ' भग्न हृदय' की चिट्ठी
( तरुण जैन नामक मासिक पत्र अंक १ जनवरी १९४२ से उद्धृत ) मान्यवर सम्पादकोंजी !
गत दिसम्बर के अंक में आपका 'थली में पाँच दिन का प्रवास' लेख पढ़ा, पढ़कर उस पर विचार किया और विचार करने के बाद आपको यह पत्र लिख रहा हूँ। सब से पहले तो मुझे आप को यह उपालम्भ देना है कि आपने थलो में जाने की मुझे सूचना भी नहीं दी । अगर आपकी सूचना मुझे मिल जाती तो मैं भी 'अवश्य आपके साथ इन पाँच दिनों में घूमता और खासकर पूज्यजी के साथ आपको जो मुलाकात हुई, उस समय मौजूद रहता जिससे पूरी पूरी बातचीत सुन पाता। आपने अपने लेख में बहुतसी बातों पर शायद जल्दी और स्थानाभाव के कारण, - केवल संकेत भर ही किया है, जिससे पूरी बातचीत को जानने की मेरी बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। खैर, अब तो जो कुछ आपने अपने लेख में लिखा है, उसी से सन्तोष मानना होगा। अगर कोई विशेष बातें बाकी रही हों, तो उन पर फिर कभी प्रकाश डालें तो अच्छा हो ।.