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( ५ ) साधु के जीवन निर्वाहार्थ ही लाते हैं। इसलिये उन्हें दूसरे को देने का अधिकार नहीं है। यदि उन वस्तुओं से वे दूसरे अतिथियों का सत्कार करते हैं तो उन्हें व्रतभंग रूप पाप लगता है। इस प्रकार साधु और आवक का भाचरण एक हो नहीं सकता। __ गृहस्थ और गृहत्यागी, विरक्त और अनुरक्त दोनों का भाचरण एक होना, भिन्नता का न होना कदापि सम्भव नहीं। साधु की कल्प मर्यादा जुदी है और श्रावक की जुदी। साधु में भी जिनकल्पी और स्थविर-फल्पी का आचार-मर्यादा एक नहीं किन्तु मिन्न है। जो वैयावयादि कार्य स्थविर-कल्पी कर सकते हैं वे जिन-कल्पी नहीं कर सकते और जो जिन-कल्पी कर सकते हैं वे स्थविर-कल्पी नहीं करते ; तब साधु और श्रावक की समानता कैसे हो सकती है ? तेरह-पन्थी लोग कहते हैं कि साधु और श्रावक की अनुकम्पा एक है और रीति भी; परन्तु, यदि दोनों को रोति और फर्नव्य एक ही हो तो साधु सुपात्र और श्रावक कुपात्र कैसे हो सकते हैं ? वे लोग श्रावक को कुपात्र क्यों कहते हैं ? वे अपने दोनों ग्रन्थ-'अनुकम्पा की ढालें' तथा 'भ्रम विध्वंसन' में श्रावक को कुपात्र कहते हैं। उनसे यदि पूछा जावे कि श्रावक सुपात्र है कि कुपात्र ? तो तेरह-पन्थी लोग श्रावक को सुपात्र कभी नहीं कहेंगे। ऐसी दशा में साधु और श्रावक की एक रीति, एक भाचार और एक व्यवहार कैसे हो सकता है ? भिन्न ही रहा