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( १५४ ) - समझते हैं, पर कपड़ा वे पहनते हैं; रोगी-उपचर्या और चिकित्सा में वे धर्म नहीं समझते, पर औषधि-चिकित्सा वे कराते हैं। : इन सब प्रश्नों का उनके पास जवाब है कि 'पंच महाव्रतधारी' को इनमें पाप नहीं लगता क्योंकि ये सब उनके निमित्त नहीं किये जाते। बस, पंच महाप्रतधारी इन प्रवृतियों के पाप से मुक्त हैं, उन्हें यह सन्तोष रहता है कि किसी को कह कर वे यह नहीं कराते हैं, और यह मालूम हो जाने पर कि उनके निमित्त से वे की गई हैं तो वे उनका लाभ नहीं लेते है। पर यह कोई कहे तभी तो मालूम हो ? क्योंकि जिस साधारण बुद्धि से यह मालूम हो भी सकती है, उसे तो वहाँ स्थान ही नहीं है। वहाँ तो केवल शास्त्रीय बुद्धि है।
दान की भी ऐसी ही स्वार्थ पूर्ण विडम्बना की गई है। पंच महाप्रतधारी साधु को दान देने में धर्म है, और अन्य किसी को देने में धर्म नहीं है। इसको कहते हैं वे सुपात्र-दान! और ऐसे सुपात्र तेरा-पन्थी साधुओं के सिवाय और किसी का होना शायद ही सम्भव हो। मैंने पूज्यजी से पूछा कि "अगर सत्य और अहिंसा
.' इस विषय में भी ढांक पिछोड़ा हो रहा है, केवल शब्द से पूछ लेने मात्र से कि यह आपके लिये नहीं बनाया गया है निर्दोष और प्रासुक नहीं हो जाता, जब तक कि उसकी उत्पत्ति के उद्देश्य पर विचार व मनन नहीं किया जाय।
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