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हैं! क्योंकि धन देना भी आश्रव का सेवन कराना है, और व्यभिचार करना भी आश्रव का सेवन कराना है। दोनों ही श्राश्रय हैं, इसलिए चाहे धन देकर जीव छुड़ावे या व्यभिचार करके जीव छुड़ावे, दोनों एक ही समान हैं ।
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कैसी असभ्यता पूर्ण और मजेदार युक्ति है । इस कुयुक्ति के श्रागे तो लज्जा को भी लज्जित हो जाना पड़ता है । यह युक्ति किसी दूसरे की भी नहीं है, किन्तु तेरह-पन्थ सम्प्रदाय के मूल संस्थापक श्रीमान् भीषणजी स्वामी की स्वयं की कही हुई है। इस निर्लज्जता पूर्ण युक्ति का खण्डन करने के लिए हम भी निर्लज्जता पूर्ण युक्ति का आश्रय लेने के लिए विवश हैं। क्योंकि ऐसा ही उदाहरण उपरोक्त युक्ति का बराबर प्रत्युत्तर समान है । मान लीजिये कि तेरह - पन्थ सम्प्रदाय के पूज्य जो का 'चातुर्मास किसी शहर में है । उनके दर्शनार्थ जाकर सेवा भक्ति करने का लाभ लेने की दो श्राविकाओं की इच्छा हुई। आखिर उन्होंने सेवा में जाने का निश्चय किया । परन्तु खर्च दोनों के पास नहीं था। इसलिए उनमें से एक श्राविका ने तो अपना जेवर बेचकर उन रुपयों से टिकिट लिया । लेकिन दूसरी ने सोचा कि रुपया देना पाँचवाँ आश्रव सेवन कराना है और व्यभिचार सेवन करना चौथा आश्रम सेवन कराना है । पाप तो दोनों ही है और बराबर हैं, बल्कि व्यभिचार से भी धन का नम्बर आगे है : यानि
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