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अर्थात् श्रेणिक राजा ने जो अमारी घोषणा (जीव न मारने विषयक) कराई थी, वह तो बड़े राजाओं की रीति है । भगवान ने उस कार्य की सराहना नहीं की, तब उस कार्य को धर्म कैसे जाना जावे ?
और श्रेणिक
कह कर एक
इस तरह तीर्थकरों द्वारा दिये गये दान को राजा की जीव न मारने विषयक घोषणा को 'रीति' ओर निकाल देते हैं । ये काम 'रीति' से होते हैं, इसलिए इनमें न धर्म मानते हैं, न पुण्य मानते हैं और पाप भी कहने की हिम्मत नहीं करते । परन्तु यदि 'रीति' होने से ही तीर्थंकरों द्वारा दिया गया दान, तथा श्रेणिक राजा द्वारा कराई गई घोषणा, धर्म, पुण्य या पाप तीनों में से किसी में नहीं है, तो फिर श्रावक का जिमाना, या विवाहोपलक्ष्य में भात, बरोठो ( भात लड़की वाले की ओर से दीगई रसोई का नाम है और बरोठी लड़के वाले की ओर से दीगई रसोई का नाम है ) आदि में एकान्त पाप कैसे हो सकता है ? क्योंकि ये काम भी तो 'रीति' के अनुसार ही किये जाते हैं। रीति के अनुसार दिया गया तीर्थकर द्वारा दान और राजा श्रेणिक की घोषणा यदि पाप के अन्दर नहीं है, तो रीति के. अनुसार कराये गये ज्ञाति भोजन, सम्बन्धी भोजन या सहधर्मी भोजन, पाप क्यों हैं ? और यदि 'रीति' के कारण किये जाने
पर भी इन कामों में पाप होता है, तो तीर्थकरों द्वारा दिया गया
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