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(३५) गणि ऐसा अव तस्याः पीय । मधेरै मायः॥ पाखंड दियो टारीः ॥ में ॥ १॥ मघरान तणे पटवारी ॥ माणक गणि जगमें नहारी। दीपत जिम वेज दिनारी ॥ सहु आय नमै नर नारी ॥ ज्यारो पाट दीप रयो भारी॥ ज्यं खिल रही केसर क्यारौ ॥ झड. ज्यारो तीर्थ जगमें गाजै ॥ नंदन बन पोपमछाने। रमियां भव दुख सह भाजै ॥ तोड. गणि रान तीर्थ सुखकारं ॥ दर्श दिलधार ॥ तिरै भवपारी ॥ में० ॥ २॥ षट् टस गुणे धर खंता ॥ परिसा बाबीस जिपंता ॥ पणचार बावन टारंता शुद्ध महार. पाणी भोगता ॥ गणि सुत्र अर्थ भाषता ॥ घनहिय बीहै समकित तंता । झड० मुनि आगम नै अनुसारै ॥ गणि बचन वटै सुख कारै॥ तरता निन पर जन तारे ॥ तोड़. गणि ऐसी है गुण धारौ ॥ मुक्त दातारी ।। भवन