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________________ ( ८ ) ९. यदि तीर्थयात्रा करने पर भी आपकी आत्माकी उन्नति न हुई हो तो तीर्थ करनेका क्या फल है ? भगवान तो घरपरभी थे, इसलिये क्रोध, मान, माया, लोभ, झूठ, कुशील सेवन, मादक वस्तु, अभक्ष्य भक्षण, अज्ञान, पक्षपात, और अन्य हिंसा का त्याग करना चाहिए तथा समताभाव रखना, दुःखित भूखे के प्रति दयाभाव प्रकट करना, मातृभूमिके सच्चे सुपूत वननेका उद्योग करना, साधुसंत, मुनि, आर्जिका, भट्टारक, यती, ब्रह्मचारी, तुलक और विद्वान इनमें से जिसका समागम हो यथायोग्य वैय्यावृत्त्य व आदर सत्कार करना चाहिये क्योंकि धर्म इन्हीं लोगों से स्थिर है: परंतु वैसी अयोग्यभक्ति नहीं करना चाहिये, कि जैसी आज कल भारतके कई एक प्रान्तोंमें प्रचलित है, और इनसे किसी न किसी प्रकार की शिक्षा ग्रहण करना चाहिये. यह भी तीर्थयात्रा करनेका फल स्वरूप है. १०. तीर्थोंपर हरएक देशके यात्री भाते हैं उन सबसे मिलना चाहिये तथा अपनेसे उनका जो उपकार ह। सक्ता हो उसको प्रसन्नतासे करना चाहिये. अपने आचार विचारोंमें जिन कारणों से दूसरोंसे मतभेद हो उन कारणोंको यथाशक्ति बदलकर आपसमें व्यवहार करना चाहिये. जिससे सब लोगों में मैत्रीभाव बढने के साथही साप निन कार्य क्षेत्रकी सीमा भी चढ़े. ११. जिस तीर्थस्थान व शहरमें जाना हो वहांके हाल चाल का विवरण अपने पास रखना चाहिये, शहरमें जहां २ जिनमंदिर
SR No.010325
Book TitleJain Tirth Yatra Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDahyabhai Shivlal
PublisherDahyabhai Shivlal
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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