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________________ (९४ ) समय ब्रह्ममें से उत्पन्न हुई है तो योगी उस का त्याग क्यों करते हैं ? और जिस को योगी छोडते है उस को परब्रह्म क्यों अहण करते हैं ? और ग्रहण करे तो वह विवेक कैसा ? और भी सृष्टि ब्रह्म से उत्पन्न नहीं होती न उस में लीन होती है। अगर ऐसा हो जाय तो ब्रह्म को 'वाताहन्ति' अर्थात् वमन किये को फिर भक्षण करने का दोष क्यों नहीं आता ? और भी जगत में अगर कोई ब्राह्मणादि को घात करता है तो महाहिंसा होती है एसा कहते हैं तो संपूर्ण सृष्टि के संहारक ब्रह्म को कैसी हिंसा होगी ? दयावान् निर्दय कैसा? क्या पुत्र को पैदा कर कर के घात करनेवाले पिता को हिंसा नहीं होगी? अगर कोई ऐसा कहे कि जगत् तो ब्रह्म की लीला है इस लिए उस के संहार में दोष नहीं होता, तो यह कथन भी यथार्थ नहीं है । क्या शिकार करनेवाले नृपति को जीवहिंसा का पाप नहीं होता ? इस लिए जो सृजन और संहार परब्रह्मम में बतलाते हैं वे उस की महिमा नहीं बढाते मगर निष्कलंक में कलंक लगाते हैं । और ब्रह्म को निष्क्रिय कह कर सृजन और संहार में संक्रिय बतलाना वो " मे माता वन्ध्या " के तरह विरुद्ध है। ज्ञानवन्त होते हैं वे ब्रह्मको उपासना करते हैं अगर वे ही ब्रह्मांश ही तो उपासना क्यों करना ? और उन में और ब्रह्म में क्या भेद ? अगर वे. सव जीव ब्रह्मांश ही होंगे
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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