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समभाव का किंचित् स्वरूप बनाने के बाद जैनों का महान् विशाल अहिंसा धर्म का वर्णन करने में आया है। इस समय भी यह परमसूत्र सब की जबान पर चढा हुवा है, और उस का स्वरूप विराट होता जाता है। समस्त जगत गौरख के साथ उस को देख रहा है। जिस का वास्तविक उद्देश तो आत्मोन्नति का है, तो भी उस का कोई भी रूप किसी भी अंश में पालन करा जावेगा उसी अंश में निश्चय फायदा होगा । उस के वस्तुस्थिति ज्ञान से जगत खंखुवार लड़ाइयों से मुक्त होगा और
आत्मोन्नति की तर्फ आगे बढ़ेगा । अहिंसा धर्म के वास्ते किसी भी धर्म में दो मत नहीं है । इस की महिमा अलौकिक भौर अगम्य है, तो भी कहते शोक होता है कि संसार का बहुतसा भाग इस से परिचित नहीं है। इस के पश्चात् जैनदर्शन जोकि सर्वज्ञभाषित दर्शन है उस का दिग्दर्शन कराने को विज्ञान विषय की रूपरेखा दिखाई गई है । साथ ही सृष्टि कर्तृत्ववाद, ब्रह्मसत्य जगत मिथ्या, षटद्रव्य, आदि विषयों का वर्णन प्रथम भाग में करा गया है जिन का हरेक जैन को अवलोकन करना चाहीयें।