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________________ (७६) उतरने से अधिक तप उससे भी पर्वत तथा उजड़ अर्थात निर्जन स्थान में रहे तो विशेप तप होता है परन्तु ग्राम में रहने में दोष नहीं, तथा जो चौथे आरे में अधिक बाहर उतरते थे सो वह तो काल व पराक्रम का प्रभाव था, बाहर जगह भी बहुत निर्वद्य होती थी, साधु महान् संघयणवंत एवं शूरवीर होते थे श्रावक भी धर्मी होते थे तथा बाहर वन्दना करने जाते थे, किन्तु वर्तमान काल में दुषम आरे के प्रभाव से वाहर बहुत कम स्थान मिलते हैं, तथा शारीरिक संघयण भी नहीं है, श्रावक भी कम श्रद्धावन्त एवं अधिक आलसी बनते जारहे हैं इसलिए ग्राम में रहना पडता है। अब कविता के लिये पूछने पर उत्तरः-माधु के लिये कविता करने का किसी भी स्थान पर निषेध नहीं है, मिथ्या कविता का निषेध है। जिसे साधु नहीं करते हैं, श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अठावीसवें अध्याय की ३१वीं गाथा के अर्थ में तथा प्रवचन सारोद्धार ग्रंथ में समकित की आठ प्रभावना में कहा है कि कविता करने की कला हो तो कविता करके जैन मार्ग दीपावें । फिर साधु "कतियावणाभूया" अर्थात् स्वममय पर समय का नान कार हो फिर श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अठावीमा अध्याय में भी दोनों शास्त्र पढ़ना कहा है तो अपनी की हुई कविता
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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