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नहीं इसलिए आहार कर रहा हूँ, ऐसा चितन करते हुए आहार करे । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के छब्बीसवें अध्याय में कहा है कि मुनि छः कारण से आहार करते हैं परन्तु व्रत किस कारण से नहीं करे ? व्रत तो त्याग के भांगे हैं या आहार त्याग के भांगे इनमें आहार तो भोग रूप है और व्रत त्याग रूप है फिर व्रत अरुपी है, आहार रूपी है, व्रत के दो भेद- १. देश व्रती २. सर्व व्रती इन दो में कोनसा ? तथा धर्म के ज्ञानादिक चार भेद है, आहार इनमें से किस भेद में है ? धर्म तो अपुदगल किन्तु आहार पुद्गल है कोई कहे कि कूरगडूक ऋषि ने आहार की दुर्गेच्छा करते हुए केवल ज्ञान पाया, ढंढण ऋषि ने आहार परठते हुए केवल ज्ञान पाया,धर्म को कौन ले जाय ? आहार की गृद्धता से मंगु आचार्य विराधक हुए, श्री उत्तराध्ययन सूत्र के छट्ट अध्याय की आठवीं गाथा में 'दुगंच्छी अप्पणो पाए, दिन्नं मुंजिञ्ज भोयणं' इति वचनात् अर्थात् सावध क्रिया की निन्दा करता हुआ पात्र में प्राप्त आहार को करें तथा श्री उत्तराध्ययन सूत्र के २९ वें अध्याय में भात के त्याग करने से अनेक भवों का नाश होता है ऐसा कहा है तथा इसी सूत्र की तीसवें अध्याय में तप करने से अनेक क्रोड़ भवों का क्षय होता है, फिर भी साधु आहार करे । श्री ज्ञाता सूत्र में धन्नावह सेठ ने अपना कार्य साधन करने