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( १७ ) गति का वन्ध पड़ता है उस समय ज्ञानावरणी आदि अशुभ प्रकृति का वन्ध होता है या नहीं। यहाँ कुछ लोग इस प्रकार कहते हैं कि सहचारी प्रकृति को नहीं गिनना चाहिए। उन्हें इस प्रकार कहें कि गणना नहीं करना इसका क्या कारण ? तथा सहचारी विना दूसरी प्रकृति बांधता है या नहीं ? जिस समय में किसी जीव ने मनुष्य गति का बन्धन किया उस समय नीच गोत्र का बन्धन हुआ वह कौनसा बन्ध है ? प्रथम संठाण का बंध न होकर चरम संठाण का बन्ध हुआ उसका क्या कारण ? इत्यादि । पुण्य पाप वन्धन के अनेक भांगे सूत्रों एवं ग्रंथों में देखने को मिलते हैं । अब यहां कोई ऐसा कहे कि एक समय में दो लेश्या नहीं होती है तब पुण्य और पाप ये दोनों किस प्रकार वन्धते हैं ? उसका उत्तर है कि- कृष्ण लेस्या में भी चालीस शुभ प्रकृति का बन्ध होता है और अड़सठ पाप प्रकृति का बन्ध होता है, एक लेस्या में दो कर्मों का बंधन होता है जिस कारण से एक एक लेस्या के असंख्याता असंख्याता संक्लेश विशुद्ध स्थान है वहां सब लेश्याओं में समय समय पर पुण्य पाप बंधते हैं परन्तु एक नहीं बंधता। ग्यारवें, बारहवें व तेरहवें गुण स्थान में वीतराग के पाप का बंधन नहीं होता, इस कारण से कषाय हटकर शाता वेदनी का बन्ध होता है। वह वन्ध वन्ध रूप नहीं है। इसीलिए दो समय की स्थिति होती है। सर्व जीव दोनों