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(२०६) शंका नहीं, पर एक आचार्य ऐसी रीति से माने तथा दूसरा आचार्य दूसरी रीति से माने, इस बात को अधिक नहीं खेंचना, अधिक खेंचना अवगुण का कारण होता है । पासत्था के दुपट्टा के दृष्टान्त से दुख पावे, फिर केवली गम्य कहने में क्या दोष लगता है ? एकान्त बँचे उसे अभिनिवेषक मिथ्यात्व का स्वामी बतलाया है, तथा पूछने वाले से ऐसा कहे कि, यह वस्तु तो ऐसे दिखाई देती है, फिर वीतराग देव कहे उस प्रमाण से है। ऐसा कहते दुराग्रह भी नहीं होवे राग द्वप नहीं बढ़े, तथा भगवान का आराधक होवे ऐसी हमारी धारणा है । परन्तु हमारे इस बात की खींच तान नहीं है। दूसरे पंडित सिद्धान्त के अनुसार दूसरी अपेक्षा बतावे तो वह मानने के भाव है। उपर्युक्त सभी अपेक्षाएं स्थापना रूप नहीं है । जैसा समझ पाये हैं, वैसा लिखा है । अतः पंडित पुरुष मेरे पर अनुग्रह कर शुद्ध करें। हमारे तो "तमेव सच्चं निस्संकियं जं जिणेहि" यह श्रद्धा है। यहां इतनी अपेक्षाएं ध्यान में आयी है पर तत्त्व तो केवली गम्य है। । भारतति नैव पदार्थ पर चौवीस द्वार समाप्तम् ।।
॥ इति श्री जैन तत्त्व शोधक ग्रंथ समाप्तम् ।।