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जानने वाले को भी समकित होती है, जैसे बालक दूध का नाम तो नहीं जानता है, पर दूध का स्वाद जानता है वैसे ही नौ पदार्थ का नाम तो नहीं जानता है पर परमार्थ जानता हो उन्हें समकित होती है, तथा नौ तत्त्व प्रकरण में कहा है कि "सच्चाइ जिणेसर भासियाई वयणं न अन्नहा हुति । इय बुद्धि जस्समणे, सम्मतं निच्चलं तस्स || १ || भगवान् ने फरमाया वह सत्य है । ऐसा जानना समकित
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है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अड्डाइसवें अध्याय में भी नौ तत्त्व सीखने से समकित कहा है तथा भाव से श्रद्धा करे तो व्यवहार में नहीं जानने वाले को भी समकित होवे, इत्यादि नौ पदार्थ का ज्ञान साधु को, श्रावक को सम्यकदृष्टि को अवश्यमेव ग्रहण करना चाहिये । जिससे समकित की शुद्धता होवे । समकित की श्रद्धा में भी बराबर नौतत्त्व का परिचय करना बताया है। नौ तत्त्व के भाव अनेक सूत्रों के आधार से बताये हैं । एक नयं के कहने पर सर्व नय ग्रहण करना चाहिये । एक नय माने उसे मिध्यादृष्टि कहा है, जो सर्व नय मानता है वही समकिति है । श्री अनुयोग द्वार सूत्र में बताया है कि "तं सव्व नय विशुद्ध, जं चरण गुण ठिओ साहू" क्योंकि भगवान का मत स्याद्वाद है, जो सर्व नय में है । एक पक्ष खेंचे उसे दुर्नय कहा है, फिर श्री आचारांग सूत्र में "सभियंति मन्न