________________
(११२)
सातवें अध्याय की १६वीं गाथा में 'लाभो देव गइ भवे' कहा है यह व्यवहार नय की अपेक्षा समुच्चय वचन कहा है फिर श्री भगवती सूत्र के आठवें शतक के दसवें उद्देश्य में आराधिकपन कहा है, इसलिए क्रिया का फल मीठा है लेकिन समकित के बिना मुक्ति नहीं है इसलिए अकाम निर्जरा एक व्यवहार नय में ही कही है किन्तु समकित दृष्टि की जितनी भी क्रिया है वे सब मुक्ति का, कारण है शुभ क्रिया से कर्म क्षय होते हैं अर्थात् अशुभ विषय कपाय आदि सेवन करने से पूर्व में जो कर्म बन्धे थे वे क्षय होते हैं, शुभ भोगावली कर्म भोगे विना नहीं छूटते हैं इसलिए भोगते हैं परन्तु उन्हें विरक्त भाव से रूक्ष. भावों से सेवन करते हैं अन्तरगत भाव से संसार में नहीं लुभावे, जिस प्रकार धाय माता बालक को खिलाती है परन्तु अन्तर हृदय में स्वयं का नहीं जानती है उसी प्रकार उदासीन भाव से विषय आदि सेवन करते हैं, मिथ्यात्व रूप, रस के विना चिकने कर्म नहीं बांधते हैं, सम्यकदृष्टि रस से अल्प कर्म बांधते हैं तथा समकित दृष्टि जीव के अशुभ लेश्या में आयुष्य का बंध नहीं होता है । इसलिए पूर्व संचित कम की निर्जरा होती है।
यहां कोई ऐसा कहे कि 'ज्ञानवंत के भोग सभी निर्जरा के कारण है, परन्तु बंध के कारण नहीं,, समकित दृष्टि