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त्याग कर, पंचेन्द्रिय धात आदि भारी कुकर्म न कर । यह
गृहस्थी का धर्म है । सब जीवों पर भी देवता होता है तथा उसी सूत्र के 'अमओ पत्थिवा तुभं, अभय दाया भवाहिय' संयति राजा को गर्दभाली मुनि ने कहा 'हे राजन् तुझे मेरे से अभय हैं तू भी सब जीवों का अभय दान का दाता वन ।' फिर इसी सूत्र के पच्चीसवें अध्याय में जयघोष मुनि ने विजय घोष से कहा 'तू शीघ्र मंयम धारण कर' इत्यादि अनेक स्थानों पर आदेश दिया है । इसलिये दया, सत्य, गील, क्षमा, वैराग्य, तपस्या, दीक्षा तथा व्रत पचक्खाण आदि के आदेश देने में दोप नहीं, साधु गृहस्थ को कहे कि भाई ! व्याख्यान सुनो; सामयिक, पौषध, प्रतिक्रमण करो सचित व कंदमूल आदि का त्याग करो इत्यादि वचन सर्वथा दोष रहित है । किन्तु यही सराग भाव से स्वार्थवश तथा स्वयं के आहार पाणी वस्त्रादि लाभ के निमित्त से भाषा का प्रयोग करेगा तो साधुता में कमी आयगी - परन्तु भाषा में दोष नहीं है । फिर गृहस्थी के अनेक कार्य है जिन्हें साधु न करता है न कराता है और न अनुमोदन ही करता है स्वयं गृहस्थी करते हैं वहां साधु पाप नहीं कहने अपितु ज्ञेय पदार्थ जानते हैं, उसका निषेध नहीं करे, स्वयं के स्वामी का कार्य करे साध्वी को नदी में
अनुकम्पा करने से अठारहवें अध्याय में