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जेनतत्त्वमीमांसा
तयोरेकन्द्रयानुपपते । 'वेतनाचेतनावेतt बन्ध प्रत्येकता गती' इति वचनाबन्धोऽस्तीति चेत्, न, उपसरतस्तयोरेकत्ववचनात्
तयोरेकत्वपरिणामहेतुः
भिन्नो लक्षण तोऽत्यन्तमिति द्रव्यभेदामिधानात् ।
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शंका - जीव और कर्मका बन्ध कैसे होता है ?
समाधान - जीव और कर्मके प्रदेशोंके परस्पर अनुप्रवेशसे बन्ध होता है, किन्तु इनके एकरूप परिणमनसे बन्ध नही होता, क्योंकि जीव और कर्म एक द्रव्य नहीं है ।
शका- इनमेसे 'जीव चेतन और कर्मपुद्गल अचेतन है, वे दोनो बन्धकी अपेक्षा एकपने को प्राप्त हैं' इस वचनके अनुसार बन्धको उन दोनोंके एकरूप परिणमनका हेतु माननेमें क्या आपत्ति है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि वे दोनों एक-दूसरेका उपसरण करते है, इसलिये उन दोनोंका एकपना स्वीकार किया गया है । लक्षणकी अपेक्षा वे दोनों अत्यन्त भिन्न है, क्योंकि आगममे इसी आधार पर द्रव्योंमें भेदका कथन किया गया है ।
स्पष्ट है कि परमागममे जो बन्धको उपचरित कहा गया है सो वह इसी आधार पर कहा गया है ।
तत्त्वार्थवार्तिकमें जो प्रयोग और विस्त्रसा ये शब्द आये है । उनमेसे अध्याय ५ सूत्र २२ में इनका यह अर्थ किया गया है
तत्र प्रयोग. पुद्गलविकारस्तदनपेक्षा विक्रिया विस्रसा ।
वहाँ पुद्गलका विकार प्रयोग कहलाता है और उसकी अपेक्षाके विना होनेवाली विक्रयाका नाम विस्रसा है । अर्थात् पुद्गल विकारकी अपेक्षा किये बिना जो विक्रया ( परिणाम ) होती है उसका नाम विसा है ।
आगे इनका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है
तत्र परिणामो द्विविध. - अनादिरादिमांश्च । अनादिर्लोकसंस्थान- मन्दराकारादि । आदिमान् प्रयोगजो वैस्रसिकश्च । तत्र चेतनस्य द्रव्यस्योपशमकादिर्भावः कर्मोपशमाद्यपेक्षोऽपौरुषेयत्वात् वैनसिक इत्युच्यते । ज्ञान- शील- भावनादिलक्षण. आचार्यादिपुरुषप्रयोग निमित्तत्वात् प्रयोगजः । अचेतनस्य च मृदादे. घट-संस्थानादिपरिणाम कुलालादिपुरुषप्रयोगनिमित्तत्वात् प्रयोगजः । इन्द्रधनुरादिनानापरिणामो वैनसिक ।
वहाँ परिणाम दो प्रकारका है- अनादि और आदिमान् । लोक