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________________ ५८ जैनतस्वमीमांसा कार्योंके प्रति बाह्य निमित्तोंको किस नयसे स्वीकार किया गया है इसका स्पष्टीकरण पञ्चास्तिकाय गाथा ८९ और समयसार व्याख्यासे भले प्रकार हो जाता है । यथा विज्जदि जेसि गमणं ठाणं पुण तसिमेव सभवदि । ते सगपरिणामेहिं दु गमण ठाणं च कुबंति ॥८९॥ जिनका पमन होता है उन्हींका पुनः ठहरना होता है, क्योंकि वे पदार्थ अपने परिणामोंसे ही गमन और स्थिति करते हैं ॥८९।। ......."धर्म. किल न जीव-पुद्गलानां कदाचिद् गतिहेतुत्वमम्यस्यति, न कदाचित् स्थितिहेतुत्वमधर्मः । तौ हि परेषां गति-स्थित्योर्यदि मुख्यहेतू स्यातां तदा येषा गतिस्तेषा गतिरेव न स्थितिः, येषा स्थितिस्तेषां स्थितिरेव न गति । तत एकेषामपि गति-स्थितिदर्शनादनुमीयते न तो तयोर्मुख्यहेतू । किन्तु व्यवहारनयव्यवस्थापितौ उदासीनो। कथमेवं गति-स्थितिमता पदार्थानां गति-स्थिती भवतः इति चेत् ? सर्वे हि गति-स्थितिमन्तः पदार्थाः स्वपरिणामैरव निश्चयेन गति-स्थिती कुर्वन्तीति । धर्मद्रव्य कदाचित् वास्तवमें जीव और पुद्गलोकी गतिमें हेतु होने का अभ्यास नहीं करता और अधर्म द्रव्य कदाचित् स्थितिमें हेतु होनेका अभ्यास नही करता, क्योंकि वे दोनों यदि दूसरोंकी गति और स्थितिके मुख्य हेतु होवें तब जिनकी गति हो उनकी गति ही होती रहे स्थिति न हो और जिनकी स्थिति हो उनकी स्थिति ही बनी रहे, गति न हो। यतः एक-एक करके उन जीवों और पुद्गलोंकी गति और स्थिति देखी जाती है अतः अनुमान होता है कि वे धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य व्यवहारनयसे स्थापित किये गये उदासीन हेतु है । शंका-यदि ऐसा है तो गति और स्थिति करनेवाले पदार्थोकी गति और स्थिति कैसे होती है ? ___समाधान-क्योंकि सभी गति और स्थिति करनेवाले पदार्थ निश्चयसे देखा जाय तो अपने परिणामोंसे ही गति और स्थिति करते है ॥८॥ ___ इस कथनसे ये तथ्य फलित होते है (१) अज्ञानीके जो योग और विकल्परूप क्रिया होती है उससे रहित होनेके कारण नित्यरूपसे जिन धर्मादिक चार द्रव्योंको आगममें स्वीकार किया गया है उनमें मात्र उदासीनपनेसे विस्रसा हेतु होनेका ही व्यवहार घटित होता है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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