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बाह्यकारणमीमांसा
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यदि आत्मा इस पुद्गलकर्मको करे और उसीको भोगे तो वह अपने आत्मा और पुद्गल दोनों की दो क्रियाओंका परमार्थसे कर्ता हो जानेके कारण दोनों क्रियाओंसे उसका अभेद मानना पड़ता हैं जो जिन देवको सम्मत नहीं है ॥ ८५॥
इस आपत्तिको आचार्यदेवने ९९ वी सूत्र गाथामें इन शब्दोंमें व्यक्त किया है
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जदि सो परद्रव्याणि य करिज्ज नियमेण तम्मओ होज्ज । जम्हा ण सम्मओ तेण सो ण तेसि हवदि कत्ता ॥ ९५ ॥ यदि आत्मा पर द्रव्योंको अर्थात् पर द्रव्योंके कार्योंको करे तो वह नियमसे पर द्रव्यमय हो जाय । यतः वह पर द्रव्यमय नहीं होता, अतः वह उनका कर्ता नही है ।
शका - आचार्यदेवने तो समयसार गाथा ८०-८१ में दो द्रव्योंके मध्य निमित्त - नैमित्तिक भावका निषेध नहीं किया, मात्र कर्ता-कर्म भावका ही निषेध किया है, निमित्तनैमित्तिक भावका नहीं ?
समाधान - कर्तानिमित्त कारणनिमित्त, अधिकरणनिमित्त इत्यादि रूपसे प्रयोजन विशेषको ध्यानमे रखकर व्यवहारसे परमें निमित्तता अवश्य स्वीकार की है पर वह परमार्थस्वरूप नहीं है इसे भी उन्होंने आगे स्वीकार कर लिया है । इसलिये निश्चित होता है कि जिस प्रकार दो द्रव्योमे परमार्थसे कर्ता-कर्म आदि रूप कथन नहीं बन सकता, उसी प्रकार दो द्रव्योंमे परमार्थसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी नही बन सकता । अतः यावन्मात्र व्यवहार परमागम में व्यवहारनयसे ही स्वीकार किया गया है ऐसा समझना चाहिये ।
(३) निश्चयकी सिद्धिका हेतु होनेसे व्यवहार कहा गया है इसका समर्थन चरणानुयोगसे भी होता है। मूलाचार मूलगुणाधिकार गाथा ३ की टीकाके इस वचन द्वारा उक्त कथनका समर्थन होता है । यथा
व्रतशब्दोऽपि सावध नवृत्तौ मोक्षावाप्तिनिमित्ताचरणे वर्तते ।
व्रत शब्द भी सावद्यकी निवृत्तिके साथ मोक्षको प्राप्तिके निमित्त रूप आचरणमें व्यवहृत होता है ।
यहाँ पर निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक प्रशस्त मन-वचन-कायको प्रवृत्ति रूप आचरण में व्रत व्यवहार मोक्षका निमित्त मानकर किया गया है । किन्तु यह आचरण किस नयसे स्वोकार किया गया है इसका विचार बृहद्रव्य संग्रह गाथा ४५ की टीकासे हो जाता है । वहाँ कहा है