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armerरण मीमांसा
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दूसरे पदार्थके कार्य होनेके पहले मानी जाय, या बादमें मानी जाय या जिस समय कार्य हो रहा है उसी समय मानी जाय । समाधान यह है कि दो द्रव्योंकी पर्यायोंमें काल व्यवधानसे व्यवहारसे कार्य कारणभाव नहीं हो सकता इसका विचार हम पहले ही कर आये हैं। साथ ही तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० १५१ ) का एक प्रमाण उपस्थित कर यह भी सिद्ध कर आये हैं कि जिन दो द्रव्योंकी पर्यायोंमें व्यवहारसे निमित्तनैमित्ति कता घटित की जाती है उनमें बाह्य व्याप्तिके आधारपर कालप्रत्यासत्ति अवश्य होनी चाहिये । अब आगे इस विषयकी पुष्टि में हम और भी आगम प्रमाण दे देना चाहते हैं । द्रव्यसंग्रहमें कहा है
(क) दुविहं पि मोक्हेउं झाणे पाउणदिजं मुणी नियमा ||२७||
मुनि निश्चय व्यवहार दोनों ही प्रकारके मोक्षमार्गको नियमसे ध्यान में प्राप्त करते हैं ||४७||
जिस समय यह आसन्न भव्य जीव स्वभाव सन्मुख होकर विकल्पको भूमिकासे निवृत्त होकर निर्विकल्प भूमिकाको प्राप्त होकर निश्चय रत्नत्रयरूपसे परिणत होता है उसी समय बाह्य मन-वचन-कायपूर्वक हुई बाह्य प्रवृत्ति में मोक्षमार्गका व्यवहार होता है । और तभी व्यवहार मोक्षमार्ग साधक अर्थात् निश्चय मोक्षमार्गकी सिद्धिका हेतु और निश्चय मोक्षमार्ग साध्य यह व्यवहार किया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
(ख) अध्यात्ममें सर्वत्र मुनि शब्द ज्ञानीके अर्थ में आया है । इसकी पुष्टि समयसार गाथा १५१ के इस वचनसे होती है
परमट्ठो खलु समओ तम्हि ट्ठिदा सहावे
सुद्धो जो केवलो मुणी गाणी । मुणिणो पावति णिव्वाणं ।। १५१ ।।
परमार्थ, समय, शुद्ध, केवली, मुनि और ज्ञानी ये एकार्थवाचक शब्द हैं, इसलिये जो मुनि अर्थात् ज्ञानी स्वभावमें स्थित हैं वे नियमसे मोक्षको प्राप्त होते हैं || १५१ || इस वचनके अनुसार चतुर्थ गुणस्थानवाला भी ज्ञानी है ।
इस कथन के अनुसार चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सभी भव्य जीव निश्चय मोक्षमार्ग प्राप्त होते समय ही व्यवहार मोक्षमार्गी कहलाने के अधिकारी होते हैं, इसके पहले नहीं ।