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जैनतस्त्वमीमांसा
आशय यह है कि प्रकृतमें वेदना यद्यपि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका साक्षात् कारक निमित्त तो नहीं है, वह है तो 'किस कारणसे मैं नारकी हो कर इस प्रकारकी वेदनाका पात्र बना' इस प्रकारके ज्ञानका ज्ञापक निमित्त ही । फिर भी ऐसा ज्ञान होनेपर कालान्तरमें उसके सभ्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना सम्भव है, इसलिये यहाँ पर वेदनाको सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका बाह्य निमित्त कहा है । यहाँ ज्ञापक निमित्तमें कारक - निमित्तपनेका उपचार किया गया है यह उक्त कथनका आशय है ।
शंका- ज्ञापक निमित्त और कारक निमित्तमें क्या अन्तर है । समाधान -- जो इन्द्रिय और मनके समान ज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्त होकर आलोक आदिके समान ज्ञानका मात्र ज्ञेय हो उसे ज्ञापक निमित्त कहते हैं और जो पदार्थोंको परिणामलक्षण और परिस्पन्द लक्षण क्रियाका निमित्त हो उसे कारक निमित्त कहते हैं । यही इन दोनोंमें अन्तर है ।
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आगम में भौम, अन्तरीक्ष आदि आठ महानिमित्त कहे गये हैं सो उनके विषयमे भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए। तीर्थंकरकी माताके तीर्थंकर होनेवाले बालकके गर्भ में आनेके पूर्व उनके भावी जीवनके सूचक जो १६ स्पप्न होते हैं सो उनके विषय में भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उस समय तीर्थकर माता जो प्रशस्त कर्मका उदय उदीरणा होती है उसके वे कारक निमित्त है । करणानुयोगमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भवको जो बाह्य निमित्त कहा गया है उसका आशय भी यही है । देखो कर्मकाण्ड गाथा ६९ से गाथा ८६ तक ।
५. बाह्य पदार्थ में निमित्तता किस नयसे कब और क्यों ?
जब यह नियम है कि प्रत्येक वस्तु स्वका उपादान और अपने में परका अपोहन (त्याग) करके रहती है, यही प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व है । जब यह भी नियम है कि प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व अपना-अपना अर्थ - क्रियाकारीपना है । और जब वस्तुको अनेकान्तस्वरूप स्वीकार करते हुए आगम यह भी उद्घोष करता है कि प्रत्येक वस्तु स्वरूप आदि चारकी अपेक्षा सत् ही है और पर रूप आदि चारकी अपेक्षा असत् ही है । यदि इसे स्वीकार न किया जाय तो प्रत्येक वस्तुकी स्वतन्त्र व्यवस्था ही नहीं बन सकती । आगममें, इस सिद्धान्तको स्वीकार करनेका भी यही कारण है कि जिस द्रव्य या गुणमें जो है वह अन्य द्रव्य या गुणमें संक्रमित नहीं